सोमवार, 8 मार्च 2010

जनता सर्वोच्च और सर्वशक्तिशाली होती है/शक्तिवान



सुना है तंत्रों में एक कोई लोकतंत्र भी होता है.उसी में हम सब रहते हैं, जनता भी उसी में रहती है. वैसे तो सुना है- हम भी जनता हैं, पर पता नहीं क्यों हमें अपने जनता होने पर शक है. खैर! ऐसे ओछी-खोटी बात फिर कभी करेंगे. फिलहाल तो लोकतंत्र का राग हमने किसी और बजह से अलापा है.

कल शाम हमारे किराये के मकान के सामने वाले चौराहे पर कलौनी के वरिष्ठ नागरिक महोदयों का दैनिक 'खड़े-वाद’ यानि खड़े-खड़े होने वाला वाद-विवाद (यदि शुद्ध शाकाहारी भाषा में कहूँ तो विचार-विमर्श) चल रहा था। और चौराहे की सड़क बेचारी बिना बजह उनकी छड़ियों की मार तीखी हरी मिर्ची की तरह खा रही थी। तभी उनमें से एक वरिष्ठ-जन ने अनौपचारिक रूप से अपनी छड़ी ऊपर की और उठाते हुए मानो ‘खड़े-वाद’ के समापन होने का संकेत सा करते हुए कहा- ‘कुल मिलाकर लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च और सर्वशक्तिशाली होती है, वह चाहे तो सबकुछ कर सकती है।’ उनके नज़दीक से निकलते हुए यह बात सुनकर मेरी बेलगाम जुबान चुप नहीं रह पाई, सो बोल पड़ी- ‘दद्दू लोगो! आपकी जनता जरा-सी मंहगाई तो रोक नहीं पाई, फिर काहे की सर्वोच्च और सर्वशक्तिशाली है?’ पर यह क्या …? दद्दू लोगों को तो मेरे जैसे भददू का यह जरा-सा बोलना मानो मूशलचंद लग गया। सो लगे भड़कने- ‘तुझे पता है जनता की ताकत?........ बड़ा आया मंहगाई……… ।’ मुझे लगा दद्दू लोग मेरे पीछे पड़ने वाले हें. सो दुम दबाकर तेज कदमों से अपने किराये के घर में जा घुसा। और उनका दद्दू छाप भड़ास-राग पीछे से मेरे कान उमेठता-सा रह गया। दरअसल दद्दू लोग अपने ज़माने के एक से बढकर एक शहंशाह थे, सो मेरे जैसे (जिसे वे सड़कछाप से ज्यादा कुछ नहीं समझते थे) का बीच में बोलना,वह भी उनकी मर्जी के विरुद्ध, कैसे बर्दास्त करते!

खैर! घर में घुसकर में सीधा सोफे में जा धंसा। फिर मान-मनुँब्बल करके अपनीउनसेएक प्याला चाय बनबाई और उसे सुड़कते हुए लगा सोचने- ‘आखिर मैंने दद्दू लोगों से क्या गलत कह दिया? क्या इस बिना दीवारों और छत के लोकतंत्र में जनता सचमुच सर्वोच्च और सर्वशक्तिशाली है? क्या यह बात एक चटपटा-सा छलावा मात्र नहीं है? यदि यह सच होता तो क्या वह महंगाई की इतनी कंटीली मार झेलती? ....... ……मित्रों अब आप ही बताइए- आय में बिना किसी बढोत्तरी के बड़ने वाली इस मंहगाई को ऊंघते हुए-से देखना और उसका दंश झेलना कौन सी सर्वोच्चता और सर्वशाक्तिशालीपने का सबूत है? यदि ऐसा होता तो क्या मेरे जैसा सडक छाप भददू सर्वोच्चों का सर्वोच्च नहीं बन जाता? तक़रीबन साल भर से यदि कुम्भकर्ण के डुप्लीकेट नहीं बने हुए हैं तो ये तो आप भी देख रहे होंगे कि जनता सुरसा माई के बदन जैसी मंहगाई का दंश सिर्फ झेल रही है बल्कि उसके खिलाफ किसी तरह की सर्वोच्चता या शक्ति भी नहीं दिखा पा रही है। पिछली लोकसभा और कई राज्यों के चुनाव मंहगाई के मुहं फाड़ते-फाड़ते ही हुए हैं, पर जनता ने जुबान खोलना तो दूर किसी को एक छोटी-सी उंगली तक खोलकर नहीं दिखाई। वो प्याज वाली संटी भी पता नहीं कहां गायब हो गई! आखिर इसका क्या अर्थ समझा जाए ? इश्क में हम तो पागल हुए जाते हैं, उनके चहरे पर थोड़ी सी हंसी तक नहीं! यदि जनता सचमुच सर्वोच्च और शक्तिशाली है, तो क्या उसने मंहगाई के कारणों उसको नियंत्रित करने की जिम्मेवारी से सरकारों ,राजनीतिज्ञों और........ को वरी कर दिया है? या मंहगाई के लिए स्वयं को ही जिम्मेवार मानकर जनता ने ठेठ हिन्दुस्तानी आदर्शों की चादर में मुंह छिपा लिया है? हो सकता है की केंद्र सरकार के पावरफुल मंत्रियों की शुद्ध-ताजी झिड़कियाँ सुनने से पहले ही अपने बड़े हुए पेट को देख-देखकर, जनता मंहगाई से नज़रें चुराने लगी हो! यह भी हो सकता है कि जनता सोच रही हो कि खाने-पीने में कमी करके वह मंहगाई स्वयम ही कम कर लेगी या फिर हो सकता है कि जनता बच्चे पैदा करने में कमी लाकर यानि पोपुलेशन कम करके मंहगाई कम करने कि सोचने लगी हो। ऐसा भी हो सकता है जनता मंहगाई जैसे फालतू काम के लिए सरकार को कष्ट ही देना चाहती हो। आखिर शर्म भी तो कोई चीज होती है! हो हो, ऐसा ही कुछ है। वैसे एक छोटी सी और फ़िज़ूल सी बात के लिए एक पवित्र सरकार की पवित्रता पर कीचड़ उछालना किसी भली जनता का काम नहीं है. फिर मंहगाई तो सरकार के कारण होती है और मंहगाई रोकना सरकार का काम होता है। लगता है मेरे ही दिमांग में फितूर भर गया है, जो बैठे-ठाले जनता जी की पोजीशन के बारे में शक करने लगा हूँ. हर ऐसा-वैसा काम कोई सरकार का काम थोड़े ही होता है! ... … … सरकार का काम यह नहीं है, … सरकार का काम वो भी नहीं है … ... फिर जनता क्यों .........!

एक बार सुना था ‘व्यावसायिक प्रतिष्ठान चलाना सरकार का काम नहीं है’। अक्सर यह सुनने को मिलता रहता है की ‘लोग कानून व्यवस्था स्वयम बिगाड़ते हैं, सरकार कहां तक उसे सुधारे!’ सरकार आखिर क्या-क्या करे? असल बात तो यह है- सरकार से कुछ नहीं करवाना चाहिए। भई, सरकार सरकार होती है। सरकार काम करे तो सरकार किस बात की? सरकार का कोई काम नहीं होता। सरकार का काम तो सिर्फ सरकार बनाना होता है। सरकार किसी तरह चलती-चलती रहे, यह काम भी सरकार का तब तक होता है, जब तक होता रहे। न हो तो यह काम भी सरकार का नहीं होता? हाँ, एक काम सरकार का जरुर होता है- जिनकी झोली है, उनकी भरती रहे. जिनकी खोली (झुग्गी-झोंपड़ी) है, उनकी वह भी रहे न रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि यह काम सरकार का नहीं होता।

खैर! कोई काम सरकार का हो न हो पर मंहगाई रोकना या उसकी चौकीदारी करना निश्चय ही सरकार का काम नहीं है। कम से कम तब तो बिलकुल ही नहीं जब मंहगाई पर प्याज की परतें न चड़ी हों! यह काम सिर्फ और सिर्फ जनता का होता है। मंहगाई होती जनता के कारण है, तो उसके बारे में चिंता भी जनता ही करे! जो कुछ करना है सो जनता करे! इसलिए हमारी ठेठ हिन्दुश्तानी आदर्शों वाली जनता बिना प्याज वाली मंहगाई के लिए सरकार को दोष नहीं देती। शायद आप लोग सोचें की ये प्याज और बिना प्याज वाली मंहगाई का क्या चक्कर है? तो भैया, ये चक्कर सिर्फ चक्कर नहीं बहुत बड़ा घनचक्कर है। और इस घनचक्कर को जन्म दिया है- राजनीति के अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्र की राजनीति के संसर्ग से पैदा हुए समाजशास्त्र ने। इस संकर वर्णीय समाजशास्त्री घनचक्कर ने मंहगाई को विशुद्ध रूप से दो प्रकारों में बाँट दिया है। एक- प्याज वाली मंहगाई और दूसरी- बिना प्याज मतलब मिठाई वाली मंहगाई। प्याज खाने के शौक़ीन (शौक़ीन होने का मतलब तो आप जानते ही होंगे?) अक्सर प्याज पैदा करना यानि उगाना पसंद नहीं करते। प्याज में बदबू जो आती है! लेकिन मिठाई खाने के शौक़ीन मिठाई पैदा करने यानि उगने (मतलब? मतलब वही……, सभी जानते हैं) का काम भी उतने ही बल्कि उससे भी ज्यादा शौक से करते हैं. सो इस तरह मिठाई वाली मंहगाई प्याज वाली मंहगाई से बिलकुल अलग होती है। ये बात किसी शुद्ध शाकाहारी अर्थशास्त्री से कन्फर्म की जा सकती है। अब शायद आप कहें कि मंहगाई तो मंहगाई होती है, क्या फर्क पड़ता है- वह प्याज वाली हो या मिठाई वाली! फर्क पड़ता है भई, बहुत फर्क पड़ता है। आइये हम समझाते हैं।

हमने जिस जनता का बार-बार स्तुतिगान किया है, ये जनता भी दरअसल दो तरह कि होती है। एक वो- जिसका कब्ज़ा नोटों पर होता है और दूसरी वो- जिसके नाम वोटों कि जागीर लिखी होती है (लिखी होती है मतलब सिर्फ लिखी होती है) यानी कि एक जनता नोट वाली और एक जनता निखालसवोट वाली! जिसके पास नोट हैं, उसे मंहगाई का बिच्छू कभी अपना डंक नहीं मारता बल्कि वह तो इस जनता की माता-लक्ष्मीजी के ऊपर नाग देवता के फन की तरह साया डाले बैठा रहता है। इस जनता की माता-लक्ष्मीजी मंहगाई देवी की कृपा से दिन-दूनी रात-चौगुनी फूलती-फलती रहती हैं, बशर्ते मंहगाई मिठाई वाली हो। अब आप ही बताइए कि ये वाली जनता मंहगाई बड़ने पर क्यों कोई बबंडर करे? इसलिए ये तो बस अन्दर ही अन्दर करती है। रही बात वोटों वाली जनता की तो मंहगाई के सोटे की असली मार उसी पर पड़ती है। उसके पास तो नोट होते हैं और ही मिठाई बनाने (उगाने) की ताकत होती है (उसके पास तो बस मार खाने की ताकत होती है) सो बढती हुई मंहगाई का मीठा-मीठा मज़ा तो उसे मिलता नहीं, उसका आटा-दाल भी मंहगाई के भंवर में बह जाता है। पर ये वोटों वाली जनता भी मंहगाई पर कोई बबंडर खड़ा नहीं कर पाती है। इसके पास वोटों की जो ताकत (जिस पर वे दद्दू लोग उछल रहे थे) होती है, उसका इस्तेमाल भी तो कोई बच्चों का खेल नहीं होता है। यदि ब्रह्माजी ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करना जानते होते तो क्या वे उसे मेघनाद को दे देते? ऐसे ही वोटों वाली जनता भी अपनी ताकत का इस्तेमाल खुद करना नहीं जानती। अब वह मंहगाई के खिलाफ हो या किसी और के खिलाफ! एक तो इस जनता को पता ही नहीं कि वोट की ताकत होती क्या है और उसका इस्तेमाल मंहगाई के खिलाफ भी किया जा सकता है। दूसरे यदि पता चल भी जाये तो भी वह उसका इस्तेमाल नहीं कर सकती। दरअसल वोट वाली जनता के वोटों की नाड़ नोट वाली जनता की आँखों में तैरते लाल-लाल डोरों से बंधी होती है। यदि वोट वाली जनता ने जरा सी करवट बदलने की कोशिश की और नोट वाली जनता की आँखों की पुतलियाँ तनिक इधर से उधर हुईं तो नाड़ कच्ची ही टूट सकती है। फिर उससे होने वाली सेप्टिक से इस जनता का क्या हाल होगा, कोई पड़ा लिखा समझे समझे, हर अनपढ़ व्यक्ति जरूर समझ सकता है। ऐसे में वोट वाली जनता क्या करे? करना क्या है, बस उकडूँ-सा बैठकर हुज़ूर के चेहरे की और देखते रहना है। जो करना होगा वो सबकुछ हुज़ूर यानि नोट वाली जनता अपने-आप कर लेंगे। हाँ जब हुज़ूर लोग खुस होते हैं या जब उन्हें लगता है कि कहीं ये उकडूं-सी बैठी वोटू जनता किसी के बहकावे में आकर उन्हें निरा बेशर्म समझ ले; तब थोड़ी सी बदनामी के वे सरकार में बैठे अपने मैनेजरों से कहकर मंहगाई में पचास रुपये की बढ़ोत्तरी में से पचास पैसे की कमी करवा देते हैं। पचास पैसे मतलब पचास पॉइंट की कमी। और फिर कई दिनों तक निरे प्रायोजित भोंपुओं और सरकारी मैनेजरों की फेरी वालों जैसी आवाजें ही गलियों-मोहल्लों के हर घर के कमरे-कमरे में गूंजती रहती हैं- ‘मंहगाई में पचास पॉइंट अंकों की गिरावट…… मंहगाई में पचास पॉइंट अंकों की गिरावट…’! हमारे वोटू जनता भाई खुश! अब इन पचास पोइंटों का क्या मतलब होता है, यह जानने के लिए वोटू भाई किन्हीं अमर्त्य सेन साहिब को तो भरती करने से रहे! वैसे भी चीनी पचास रुपये से घटकर साड़े उनचास या पीली दाल नब्बे रुपये से घटकर साड़े नवासी रुपये हो जाये, तो मंहगाई में हुई कमी तो सबको दिखनी चाहिए ? इसमें अमर्त्य सेन जी क्या कर देंगे, भगवान ने दो-दो आँखें तो सबको दीं ही हैं ? और फिर ये क्या प्याज वाली मंहगाई समझ रक्खी है, जिसमें हर ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे को टांग अड़ाने का अधिकार मिल जायेगा! और जहाँ रेट का पंद्रह से बढ़कर पचास रुपये होने पर उसका पांच या दस तक लौटना जरुरी हो! खैर! ऐसी फालतू बातों के लिए किसके पास टाइम रखा है! जनता के पास, सरकार के पास, पूंजीपतियो के पास, भोंपुओं के पास और हमारे दद्दू लोगों के पास! वैसेजनता सर्वोच्च और सर्वशक्तिशाली हैयह बात हमें मान लेनी चाहिए, क्योंकि नोट वाली जनता ही तो आखिर असली जनता है। मिठाई बनाने की ताकत तो उसी के पास है। दद्दू लोग भी तो उसी को जनता मानते हैं। जिसके पास मिठाई बनाने की ताकत नहीं है, वह जनता भी कोई जनता है! उसका क्या वजूद और क्या मान्यता? दद्दू लोग और उनकी जनता दोनों एक-दूसरे से मान्यता प्राप्त हैं।

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